
कभी सोचकर बैठे रहो क्या करना क्या नहीं है करना
सोच सोच मैं वक्त निकलता जाता है
जीने की भी हो तमन्ना की
चोट खाकर कभी अपनों से लगता है फिर
की अब ज्यादा जी कर भी क्या है करना
ये तो दिल का पागलपन है जो यु ही सोचा करता है
सोचने के लिए और भी बहोत कुछ है
ये तो भावनाओ को कागज पर उकारता रहता है
सोच सोच मैं वक्त निकलता जाता है
जीने की भी हो तमन्ना की
चोट खाकर कभी अपनों से लगता है फिर
की अब ज्यादा जी कर भी क्या है करना
ये तो दिल का पागलपन है जो यु ही सोचा करता है
सोचने के लिए और भी बहोत कुछ है
ये तो भावनाओ को कागज पर उकारता रहता है